यहा पर हम जानेगे की निरंतर आनंद क्या है ? और उसे कैसे पाया जा शकता है. हमारा ध्येय कुछ ऐसा है की जीवन हमे जीने योग्य लगे. हमे जो पीड़ा होती है, अकेलापन का अनुभव होता है वह न हो. हमारा पूरा दिन आनंद में बीते. इनके अलावा हमारा जीवन चिंता, हतासा, तनाव के भावो से घिरा रहता है. एक गलत तरीके का प्रोग्राम सेट हो गया है जो हमे बार बार निचे गिराता है.
कभी कभी तो हमारे पास सब कुछ होते हुवे भी कुछ न कुछ दिमाग में उभर कर आता है और हम दुखी हो जाते है. एक ही सोच हमारे दुःख को उत्पन्न करने में काफी है. प्रशन्नता का भाव अनुभव में आता ही होता है तब ही कोई बात मन में उभर कर आये और हम निराश हो जाते है, बेचेन हो जाते है.
इनके बारे में आज हम यहा सोचेगे. हरेक जिव आनंद पाना चाहता है. छोटा सा जिव हो या बड़ा. एक कुत्ता भी कोई अच्छी जगह ढूढ कर बैठता है की उसे पीड़ा न हो आनंद से बैठ शके. मनुष्य भी यहा पर जो कोई सुख सुविधा का प्रबंध करता है वह आनंद के लिए है.
ये आलीशान महल, बंगला, गाड़ी मोजशोख की वस्तु ये सारी आनंद को पाने के लिए है. पूरी जिन्दगी आनंद को पाने के लिए प्रयास करता है कभी कभी तो विषयों में आनंद है ऐसा सोच कर मनुष्य विपरीत कर्म भी करता है. मनमे अश्लील भी सोचता है.
वास्तव में आनंद हमारा अपना ही गुण है. आनंद आत्मा का गुण है सत, चित और आनंद. उनके लिए हमें दर दर भटकने की कोई जरूरत ही नही है. लेकिन यह आत्मा का हमे स्वतंत्र रूप से अनुभव नही होता. अगर हम चित में स्थिर रहे तो ये हो शकता है.
लेकिन सामान्य मनुष्य हमेशा अपने मन और उनके विचारो से उलज़ा हुवा रहता है. अब मन में जो कुछ भी भले बुरे विचार आते है उनके अनुसार सारा अनुभव होने लगता है. मन में दुःख उत्पन्न हो तो दुःख लगता है. पास बहुत हो लेकिन अगर मनमे असंतोष हो तो तुरंत ही असंतोष का अनुभव होने लगता है.
मन एक पडदा है उनमे सारे विचारो और भाव उत्पन्न होते है. जो कुछ भी दिखाय दे, सुनाय दे,हम सोचे वह सब मनमे उत्पन्न होता है और हमे उनका अनुभव होता है. दुःख उत्पन्न हो तो दुःख का अनुभव, चिंता उत्पन्न हो तो चिंता का अनुभव.
इस तरह से ये सारी की सारी अनुभूति मन में उत्पन्न हुवे संस्कार ही है. निर्मल और शांत जलमे जैसे भीतर की वस्तु साफ दिखाय देने लगे. उस तरह अगर हम एकदम शांत हो जाये तो आत्म तत्व की अनुभूति हमें होने लगती है लेकिन यहा पर हमारा प्रश्न यही है की मन को शांत कैसे रखा जाये.
यहा पर एक बात बतादू कीहमारी प्रत्येक सोच ही यहा पर काम करती है अगर हम यह सोचने लगे की में कमजोर हु तो हम धीरे धीरे ऐसे ही बन जायेगे. हम आनंद रूप है. हम अत्यंत शांत है. ये सारा जमेला मन का है. विचार सारे मन के है. हम मन नही है.
ऐसी एक समज मन को रोकने में कारगत साबित होती है. आपको लगेगा की एक सोच कैसे ये सब कर शकती है. जिस तरह से विपरीत सोच है वैसे ही यह सोच है. यहा पर ऐसा है की वह सोचता है विपरीत और फिर अपने आप में ही बंध जाता है.
क्योकि मन उनकी सत्ता के बिना तो चलता नही. मन स्वतंत्र नही है वह एक रचना है. उसमे हमारा self awareness (जागरूकता) दाखल होता है बादमे ही वह कार्य करने में सक्षम होता है. अगर वह बुरा या विपरीत सोचेगा तो अपने भीतर जो में हु का अनुभव है उसे भी निन्म स्तर पर ले आएगा.
तदन उनसे विपरीत अगर वह दिव्य सोचने लगे तो वह अपने सवरूप के प्रति जायेगा. यहा मन दोगले तरीके से काम करता है वह पडदा भी है और चित के आधार पर में अलग हु का अनुभव करने वाला भी बना हुवा है.
यह बहुत ही आसान है हमने इसे खामखा मुश्किल बना रखा है. उनका मतलब यह हुवा की अगर हमें या तो मन को शांत रखने का प्रयास करना चाहिए. अथवा तो उसे दिव्य विचारो में प्रवृत रखना चाहिए. अथवा तो साक्षी भाव का ध्यान करना चाहिए.
मन वश में आना अत्यत कठिन लगता है लेकिन प्राणायाम और ध्यान से धीरे वश में किया जा शकता है उस के लिए केवल नियमित प्रेक्टिस की जरूरत है. जिसको मन को साक्षी भाव में देख कर चित में रहने की विद्या आ गई वह पुरे दिन और रात सहज आनंद का अनुभव करता रहेगा.
अब क्या होगा की जैसे जैसे वह यह आनद और चेतना का अनुभव करते जाएगा उनके भीतर अनेक गुणों और समज की उत्पति होगी. शरीर के स्तर पर, मानसिक स्तर पर बोध्धिक स्तर पर और इस जगत के स्तर पर उनका धीरे धीरे विकास होने लगेगा.
हमारे भीतर कई सारे गुणों उत्पन्न होने लगेगे. लेकिन यहा पर दिक्कत यही है की मन में इतने सारे विचार उठते है की उसे रोकना बहुत मुस्किल सा हो गया है इसलिए तो प्राणायाम, ध्यान, दिव्य श्रवण, ग्रंथो का वांचन करना है.
जिससे धीरे धीरे मन शांत होगा या तो हम चित में धीरे धीरे लींन होते जायेगे. चक्रो की जागरुती इनके साथ ही होती जाती है. हा बंधो का अभ्यास यहा पर सिखाया जायेगा जो बहुत ही असरकारक है.
ये सब लगता है मुस्किल लेकिन जुड़े रहने से में आपको गैरंटी देता हु की अगर आप समर्पित भाव से इस साधना से जुड़े रहेगे तो निरंतर आनद सहज है. यहा समर्पित का अर्थ है नियमित साधना के प्रयास करना उसमे विश्वास रखना. ये सारी योग क्रिया ही है कोई व्यक्ति ने नही बनाई हमारे मनीषीऔ ने ये वारसा दिया है लेकिन शिक्षक के प्रति यदि विश्वास न हो तो हम ये सब करने के लिए तत्परता नही होते. केवल इस भावार्थ में.
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