हमारे वैदिक सनातन धर्म में जीवन को जीने के और उनके द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के अनेक मार्ग है. जिसमे ज्ञान मार्ग है, कर्म मार्ग है, योग है, सांख्य है, भक्ति योग है. इस प्रकार बहुत सारे अलग अलग मार्ग है उनके सम्प्रदाय भी है लेकिन फिर भी उपनिषद के ” सर्व अखिलविदं ब्रह्म ” के सिध्धांत को सबको जोड़ रखा है.
उपनिषद के समय ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के लिए एक नियम ऐसा प्रचलित था की जो कोई इसी विद्या को जानना चाहता हो वह अपने जीवन में बड़ा बदलाव लाये मतलब की उनका जो वर्तमान जीवन है उनकी सारी वस्तु और संबंध छोड़ दे.
इतना ही नही लेकिन जगत से दूर कोई अरण्य में चला जाये. क्योकि न रहेगा ” बास और न बजेगी बांसुरी ” उस नियम से अगर सामने रहेगा ही नही तो फिर भुगतने की इच्छा कहा से होगी.
लेकिन यहा पर पात्रता रखी गई थी. क्योकि हरेक व्यक्ति का मनः स्तर चेतना का स्तर एक जैसा नही होता. कोई लोग ज्यादा विषयों में लोलुप रहते है. कोई विपरीत आदतों के शिकार होते है. तो कोई साधना जल्दी एकाग्र नही हो पाते ऐसे होते है. ऐसा इसलिए होता है की मनुष्य ने जो कर्म पिछले वर्षो में या जन्म में किये हो उनके अनुरूप संस्कार उनके अचेतन मन में स्टोर हुए होगे.
अब यहा पर क्या होता है की अगर वह अशुद्ध संस्कारो का जमेला ले कर सब कुछ छोड़ दे तो उनका जो वर्तमान जन्म है वह साधना में परिपक्वता पायेगा नही. इस लिए भगवान के शब्द में कहे तो “मिथ्याचार…” होता है मतलब बाहर कुछ अलग भीतर कुछ अलग.
तो उनका हल क्या है ? भगवद गीता कहती है की इस समय हमे कर्म को त्यागना नही लेकिन दोनों को एक साथ करना है. मतलब साधना करनी है साथ में जो आव्यश्क लगे वह कर्म करने है. लेकिन वह भी किसी भी आसक्ति के बिना.
आप कहेगे के ये कैसे सम्भव है ? संभव हो शकता है अगर हम हमारे जीवन में एक दिव्य जीवन का लक्ष्य रखे और वह लक्ष्य उपर उठना. मतलब आत्म तत्व की प्राप्ति. भीतर की चेतना की अनुभूति रखे. या हम अन्य लोगो का हित हो ऐसा सोचते रहे तो अपने आप ये कर्म निष्काम होते जायेगे.
ये भगवद गीता का दिव्य सार है. यहा पर ऐसा करने से क्या होता है की जो कोई कर्म होता है वह केवल एक देह और इन्द्रिय के संकुचित भाव से प्रेरित हो कर नही होते. लेकिन विश्व व्यापी चेतना के साथ एकरूप हो कर होते है
ये हो गई कर्म और साधना की एकता. अब दूसरी बात आती है अलग अलग सम्प्रदायों और मतो की !!
इन पर bhagavad geeta में अलग अलग अध्याय में समजाया है की सर्व साधना और मार्गो एक ही परमात्मा की और जाते है. क्योकि दो का कोई अस्तित्व नही है. एक ही है. “एको अहम द्वितियो न अस्ति… ” भगवान गीता के ११ में अध्यायमें विश्वरूप दर्शन भी कराते है. मतलब की सारा द्रश्य जगत जो हमारे सामने है वह उनमे से ही प्रगट होता है और उसमे ही विलीन हो जाता है.
जो ध्यान करते है, भक्ति करते है, योग करते है, तत्वज्ञान का अभ्यास करते है वह उपर उठने के लिए है भगवान को प्राप्त करना उनका अर्थ यही है की हम जो हमारे अस्तित्व को ये केवल शरीर और मन मान रहे है उनसे उपर उठकर एक दिव्य चेतना में एकरूप हो.
अगर कोई ये कहे की अलग अलग विधि या क्यों है ? अलग अलग मूर्ति क्यों है ? अलग अलग मंदिर क्यों है ? तो उनका उत्तर ये है की प्रत्येक व्यक्ति की जो मन का लेवल है उनकी मान्यता अलग अलग होती है उनके आधार पर वह विश्वास करता है.
जिसमे विश्वास आ जाये उन पर श्रध्धा दृढ होती है. जिन पर श्रध्धा दृढ हो वहा मन स्थिर हो ने लगता है और धीरे धीरे अपने आत्मा में ही चेतना में एक होने लगता है. यही तो करना है.
इसलिए भगवान कहते है की सारी पूजा विधि अंत में तो मुझे ही मिलती है. गीता के दशमे अध्याय में भगवान अपना अस्तित्व सभी जगह पर बताते हुवे यहीसाबित करते है की ऐसी कोई जगह नही जहा पर भगवान नही है.
भक्ति योग की विषद रूप से रजुआत !!
भगवान १२ में अध्याय में कहते है की भक्ति एक बहुत ही असरदार मार्ग है तत्व का मिलन का !! लेकिन उसमे भी एक बहुत ही गहरी बात भगवान बताते है. भगवान कहते है की जो मेरी भक्ति करता हा वह साथ में उपर भी उठता है. मतलब उनमे गुणों का विकास होना चाहिए. अध्यात्म को कर्म से अलग नही करना है.
भक्त है मतलब केवल भगवान पर आधार रखे और बैठा रहे ऐसी बात भगवान नही करते. यहा पर कदम कदम पर भगवान कहते है की “युद्ध कर …” मतलब कर्म कर. दूसरी कोई भी बात तुम्हे नही सोचनी है केवल कर्म करना है और बहेतर तरीके से करना है.
तुम वही करो और तुम उसे बहेतर तरीके से करो जितना तुम उसे अच्छी तरह से कर पाओ.
bhagavad gita ka bhkti yog, bhagvad geeta quotes, bhagwad gita in hindi, bhagavat gita ko jane